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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
गुज़र गई है किसी की तलाश में इक उम्र
न जाने आया किधर से, किधर गया वो शख्स

अब और इसके सिवा, उसकी हो तो क्या पहचान
रविश-रविश महक उठी जिधर गया वो शख्स

मैं कब से ज़ब्त के बेदर मकां में हूँ महसूर
अजीब सब्र की सिल दिल पे धर गया वो शख्स

पहुंच रही है जो मानूस-सी महक मुझ तक
बहुत क़रीब से शायद गुज़र गया वो शख्स

न जाने कौन से सूरज की थी ज़िया उसमें
अंधेरी रात को पुरनूर कर गया वो शख्स

मुझे वो छोड़ गया है बड़े तज़बज़व में
हरिक से पूछ रहा हूँ, किधर गया वो शख्स

असर हुआ है अजब इस पे मेहर बारिश का
ज़रा सा भीग के यकसर निखर गया वो शख्स।

</poem>
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