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03:27, 29 सितम्बर 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=मेहर गेरा
|अनुवादक=
|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
हर बुलंदी से नज़र आई बुलंदी इक नई
हर सफ़र के बाद इक ताज़ा सफ़र करना पड़ा
मुस्कुराहट में छुपाते ही रहे हम ज़ख़्मे-दिल
चाहते थे जो न करना बेश्तर करना पड़ा
तुझसे मिलकर जिस खुशी को जावेदां समझा था मैं
क्या सितम है उसको खुद ही मुख़्तसर करना पड़ा
पार करना ही पड़ा ऐ मेहर तनहाई का दश्त
रात, जाड़ा, धुंध सबको दरगुज़र करना पड़ा।
</poem>