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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
हर बुलंदी से नज़र आई बुलंदी इक नई
हर सफ़र के बाद इक ताज़ा सफ़र करना पड़ा

मुस्कुराहट में छुपाते ही रहे हम ज़ख़्मे-दिल
चाहते थे जो न करना बेश्तर करना पड़ा

तुझसे मिलकर जिस खुशी को जावेदां समझा था मैं
क्या सितम है उसको खुद ही मुख़्तसर करना पड़ा

पार करना ही पड़ा ऐ मेहर तनहाई का दश्त
रात, जाड़ा, धुंध सबको दरगुज़र करना पड़ा।

</poem>
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