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|संग्रह=लम्हों का लम्स / मेहर गेरा
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<poem>
हरिक भटकता हुआ कबसे दर-बदर क्यों है
तलाश कोई तो है वर्ना ये सफ़र क्यों है

वो रोज़ मिलता है क्यों ख़्वाब के जज़ीरे में
बिछड़ के मुझसे वो मेरे क़रीबतर क्यों है

कहीं भी क्या कोई नहीं है इसके लिए
हर एक सिम्त भटकती हुई नज़र क्यों है

हरेक शख्स हरासां हरिक है सहमा हुआ
अजीब ख़ौफ़ में लिपटी हुई सहर क्यों है।
</poem>
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