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|संग्रह=इज़हार / अजय अज्ञात
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<poem>
न पूछो ये मुझ से कि क्या कर रहा हूँ
ग़ज़ल में तजुर्बा नया कर रहा हूँ

भले इन की फ़ित्रत में है बेवफाई
हसीनों से फिर भी वफा कर रहा हूँ

कि रुख्सार पर तेरे होठों को रख कर
नमाज़े-मुहब्बत अदा कर रहा हूँ

बनाते हो मुँह क्यों सिकोडी हैं भौंहें
कहो क्या मैं कोई खता कर रहा हूँ

सदा बद दुआएं मिली मुझ को जिन से
मैं हक में उन्हीं के दुआ कर रहा हूँ

चला जा रहा हूँ मैं खुद उल्टे रस्ते
मगर दूसरों को मना कर रहा हूँ

बुजुर्गों के कदमों में सर को झुका कर
दुआओं की दौलत जमा कर रहा हूँ

‘अजय' रू ब रू आइना अपने रख कर
कि खुद का ही मैं सामना कर रहा हूँ
</poem>
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