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{{KKRachna
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|संग्रह=इज़हार / अजय अज्ञात
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<poem>
अपने दिल में इतनी कुव्वत रखता हूँ
सच को सच कहने की जुर्अत रखता हूँ

बेशक मिट्टी का दीपक हूँ लेकिन मैं
तम से टकराने की हिम्मत रखता हूँ

कहते हैं मुझ से मेरे संगी-साथी
शाइर जैसी मैं भी फ़ित्रत रखता हूँ

बेअदबी से मुझ से बातें मत करिये
ग़ैरतमंद हूँ मैं भी इज्ज़त रखता हूँ

मेरे दीवानेपन की हद तो देखो
ख़्वाबों में भी तेरी हसरत रखता हूँ

मेरे भी दिल में पलते हैं कुछ अरमां
मुस्कानों की मैं भी चाहत रखता हूँ

हैरां हैं तितली भंवरे‚ क्यों गुल हो कर
ख़ारों से मैं इतनी निस्बत रखता हूँ
</poem>
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