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{{KKRachna
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|संग्रह=इज़हार / अजय अज्ञात
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<poem>
कहा मोम ने ये पिघलते-पिघलते
रफ़ीक़़ेसफ़र हैं अदलते-बदलते

बहुत देर कर दी दयारेफ़लक में
सुनहरी प्रभा ने निकलते-निकलते

पहुंच ही गए हैं निकट मंज़िलों के
क़दम रफ़्तारफ़्ता‚ संभलते-संभलते

नहीं क्यों है थकती शबोरोज़ आख़िर
जबां आप की विष उगलते-उगलते

चले आइएगा कभी बाग़े-दिल में
किसी रोज़ यूं ही टहलते-टहलते

‘अजय' इन पुरानी बुरी आदतों को
समय तो लगेगा बदलते-बदलते
</poem>
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