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|संग्रह=इज़हार / अजय अज्ञात
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<poem>
सारे जहां को प्यार का पैग़ाम दे चलूँ
आधे-अधूरे काम को अंजाम दे चलूँ

पी कर जिसे सुकून मिले तश्नगी मिटे
उल्फ़त भरा जहान् को वो जाम दे चलूँ

इल्मोअदब की कर रहे हैं जो भी ख़िदमतें
सोचूं कि कुछ न कुछ उन्हें इन्आम दे चलूँ

हाथों की इन लकीरों का कोई नहीं क़सूर
फिर कैसे इन को बेवजह इल्ज़ाम दे चलूँ

तुम को ग़ज़ल कहूँं कि रुबाई कहूँ कोई
जो तुम को हो पसंद वही नाम दे चलूँ
</poem>
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