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05:43, 29 सितम्बर 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=[[अजय अज्ञात]]
|अनुवादक=
|संग्रह=इज़हार / अजय अज्ञात
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{{KKCatGhazal}}
<poem>
जाती है जहाँ तक ये नज़र देख रहा हूँ
बदलाव इधर और उधर देख रहा हूँ
जिस गाँव के खेतों में कभी उगता था सोना
उस गाँव में उद्योग नगर देख रहा हूँ
भूचाल कहीं बाढ़ से होती है तबाही
इंसान पे क़ुदरत का क़हर देख रहा हूँ
भाती नहीं औलाद को माँबाप की बातें
बचपन पे जवानी का असर देख रहा हूँ
कैक्टस से घिरा मौन बिचारा-सा खड़ा इक
तहज़ीब का मैं सूखा शजर देख रहा हूँ
चमकेगा मिरे लख़्तेजिगर तेरा सितारा
बढ़ता हुआ मैं तुझ में हुनर देख रहा हूँ
अब रात यहाँ देर तलक टिक नहीं सकती
मैं उगती हुई एक सहर देख रहा हूँ
माँबाप का आशीष सदा साथ रहा है
मैं उन की दुआओं का असर देख रहा हूँ
‘अज्ञात' मुझे छोड़ गया काफिला पीछे
चुपचाप खडा गर्देसफ़र देख रहा हूँ
</poem>