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{{KKRachna
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|संग्रह=इज़हार / अजय अज्ञात
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<poem>
अब भी ऐसे लोग बहुत हैं बस्ती में
काट रहे जीवन जो सूखी रोटी में

हैरत है इस कंप्यूटर के युग में भी
अंतर समझा जाता बेटे-बेटी में

छोटे से मोबाइल से देखो कैसे
आज सिमट आई है दुनिया मुट्ठी में

आंखें दिखलाते हैं मम्मी-पापा को
बच्चों ने तहज़ीब मिला दी मिट्टी में

मेरे दिल में भी ये हसरत पलती है
नाम लिखा जाए मेरा भी सुर्खी में

कुछ तो बात अलहदा इस में है यारो
जो भी आता बस जाता है दिल्ली में

शब भर जगराता करते रहते देखो
चंदा तारे सूरज की अगवानी में

आया है ‘अज्ञात' तुम्हारी चौखट पर
भीख अदब की डालो इस की झोली में
</poem>
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