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आए काले बादल घिर कर / अजय अज्ञात

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|संग्रह=इज़हार / अजय अज्ञात
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<poem>
आए काले बादल घिर कर
सागर से गागर को भरभर

जंगलजंगल‚ पर्वतपर्वत
आसाढ़ी घन बरसें झरझर

जब कौंधे है चपला नभ में
कांपे सब का जियरा थरथर

चलते हैं सब छाता ताने
कुछ बैठे हैं घर के भीतर

थोड़ीसी आहट पाते ही
नैना जाते हैं देहरी पर

देखो निकला इंद्रधनुष भी
सतरंगी ये कितना सुंदर

मेघों के रथ बढ़ते जाते
कलकल बहते नदिया‚ निर्झर

फूट रही नव कोपल हरसू
आया सावन‚ बीता पतझर

आते‚ जाते दूर गगन में
निशदिन काले मेघ निरंतर
</poem>
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