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{{KKRachna
|रचनाकार=[[अजय अज्ञात]]
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|संग्रह=इज़हार / अजय अज्ञात
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<poem>
ख़ाली कभी‚ भरा हुआ आधा दिखाई दे
चाहे जो जैसा देखना वैसा दिखाई दे

मुठ्ठी में सब समेटने की आरजू लिए
पैसे के पीछे दौड़ती दुन्या दिखाई दे

औलाद चाहे जैसी हो माँ बाप को मगर
अच्छा सभी से अपना ही बच्चा दिखाई दे

देखूं मैं जब भी दूधिया से चाँद में मुझे
इक सूत कातती हुई बुढ़िया दिखाई दे

बाज़ार‚ पूंजीवाद के युग में जहाँ तहाँ
सौदा वफ़ा‚ यक़ीन का होता दिखाई दे

होने लगी अजीबसी हलचल दिमाग में
कोई नया ख़याल सा आता दिखाई दे

हमदर्द बन के कोई मिरा पूछे हालेदिल
कोई तो मुझ को भीड़ में अपना दिखाई दे

‘अज्ञात' से न पूछिये गुजरी है उस पे क्या
गर्दिश में आज ज़िंदगी तन्हा दिखाई दे
</poem>
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