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{{KKRachna
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|संग्रह=इज़हार / अजय अज्ञात
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<poem>
हम बेखुदी में जाने किस ओर जा रहे हैं
पत्थर को पूजते हैं माँ को भुला रहे हैं

दानिश्व्रों की बातों पे गौर कीजियेगा
किस्से नहीं ये अपने अनुभव सुना रहे हैं

छाये हुए हैं हर सू अफ्सुर्दगी के बादल
जुल्मत के क्रूर पंजे ख़ुशियों को खा रहे हैं

चलता न ज़ोर जिन का पक्की इमारतों पर
तूफां वो झोपड़ी पर अब जुल्म ढा रहे हैं

कैसे बुझेगी तृष्णा ‘अज्ञात' प्यासे मन की
बेज़ा जरूरतें हम ख़ुद ही बढा रहे हैं
</poem>
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