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{{KKRachna
|रचनाकार=अजय अज्ञात
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|संग्रह=जज़्बात / अजय अज्ञात
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<poem>
बु ुर्गों से निभाना भूल बैठे
अदब से सर झुकाना भूल बैठे

चले आए महानगरों में जब से
सभी रिश्ते निभाना भूल बैठे

उन्हें है जुस्तजू मंज़िल की यारो
जो ख़ुद रस्ता बनाना भूल बैठे

तुम्हारी आँखों मे कैसी कशिश है
इन्हें देखा ज़माना भूल बैठे

दिखावे को मिलाया हाथ हरदम
दिलों से दिल मिलाना भूल बैठे

हुज़ूमे ग़म ने ऐसा घेरा हमको
‘अजय’ हम मुस्कुराना भूल बैठे
</poem>
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