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{{KKRachna
|रचनाकार=अजय अज्ञात
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|संग्रह=जज़्बात / अजय अज्ञात
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<poem>
हम से तो कभी ऐसी, शाइरी नहीं होती
जिस में कुछ नयापन या, पुख़्तगी नहीं होती

उँगलियों या होठों का, दोष कुछ रहा होगा
बांसुरी कभी यारो, बेसुरी नहीं होती

लोग यूँ ही जलते हैं, दूसरों की ख़ुशियों से
हम से तो यूँ ही बेजा, ख़ुदकुशी नहीं होती

काश चाहने वाला, इक हमें मिला होता
ज़िंदगी से फिर ऐसी, बेरुख़ी नहीं होती

लोग यूँ ही भरती के, क़ाफ़िये मिलाते हैं
हम से तो ग़ज़ल से यूँ दिल्लगी नहीं होती
</poem>
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