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03:42, 30 सितम्बर 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अजय अज्ञात
|अनुवादक=
|संग्रह=जज़्बात / अजय अज्ञात
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<poem>
पराया ग़म मेरे दिल की ख़ुशी को छीन लेता है
किसी की आँख का आँसू हँसी को छीन लेता है
खिलाता है जो सहरा में भी फूलों को वही देखो
ख़ज़ाँ बन कर चमन से ताज़गी को छीन लेता है
लुटेरा बन के आता है कभी जब वक़्त ऐ यारो
जो इस के हाथ लगता है उसी को छीन लेता है
सलामत हैं तभी तक हम, हैं जब तक रहमतें उसकी
ख़ुदा जब चाहता है ज़िंदगी को छीन लेता है
‘अजय’ ऐसा भी होता है कभी बातिल का इक तूफ़ाँ
चराग़े हक़ से झट से रौशनी को छीन लेता है
</poem>