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|रचनाकार=अजय अज्ञात
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|संग्रह=जज़्बात / अजय अज्ञात
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<poem>
झूठे को सारे लोग ही सच्चा समझते हैं
नकली मुखौटे को ही ये चेहरा समझते हैं

हम पार कर के आए हैं दरया-ए-आग को
दर्दे जिगर का गीत से रिश्ता समझते हैं

हैरान हूँ ये सोच के आख़िर है वज्ह क्या
सब प्यार को ही आग का दर्या समझते हैं

दौलत का ऐसा हो गया उनको नशा कि अब
हर अच्छे आदमी को वो पगला समझते हैं

‘अज्ञात’ आज तक तुझे समझा नहीं कोई
दिखता है जैसा सब तुझे वैसा समझते हैं
</poem>
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