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{{KKRachna
|रचनाकार=अजय अज्ञात
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|संग्रह=जज़्बात / अजय अज्ञात
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<poem>
धूप से मैं रौशनी थोड़ी चुरा लूँ
झोपड़ी से तीरगी थोड़ी चुरा लूँ

माहरू से चाँदनी थोड़ी चुरा लूँ
लब से उसके चाशनी थोड़ी चुरा लूँ

मौत को मालूम भी होने न पाये
रफ़्ता-रफ़्ता ज़िंदगी थोड़ी चुरा लूँ

तेरी आँखों के हसीं मैख़ानों से मैं
चाहता हूँ मय कभी थोड़ी चुरा लूँ

तू समंदर है मगर प्यासा बहुत है
आ मैं तेरी तिश्नगी थोड़ी चुरा लूँ

अब ख़ुशी आने का रस्ता कौन देखे
ग़म की गठरी से ख़ुशी थोड़ी चुरा लूँ

इस अमीरी में इज़ाफ़े के लिए मैं
मुफ़लिसों से मुफ़लिसी थोड़ी चुरा लूँ
</poem>
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