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04:08, 30 सितम्बर 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अजय अज्ञात
|अनुवादक=
|संग्रह=जज़्बात / अजय अज्ञात
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{{KKCatGhazal}}
<poem>
यक ब यक दिन में ये कैसा घुप अँधेरा हो गया
कैसे ओझल सूर्य का सारा उजाला हो गया
हर दिशा में तन गई है गर्द की चादर यहाँ
आँधियों से आसमां का रंग मैला हो गया
पल रहे हैं सब के मन में अनगिनत दूषित विचार
किस क़दर अब आदमी का मन विषैला हो गया
अब नहीं बाक़ी है हिम्मत मुझ में इसको ढोने की
कुछ जि़यादा भारी चिंताओं का थैला हो गया
उड़ गई है नींद आँखों से मेरे ‘अज्ञात’ फिर
फिर से कोई ख़्वाब इन आँखों में पैदा हो गया
</poem>