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|रचनाकार=अनु जसरोटिया
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|संग्रह=ज़ियारत / अनु जसरोटिया
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<poem>
इक सहेली की तरह करती है मुझ से प्यार माँ
मेरे हर सुख दुख में रहती है शरीके-कार माँ

तुझ से कर बैठा अगर कोई कभी तकरार माँ
बन के आऊँगी मैं तेरे हाथ की तलवार माँ

तेरी ठण्डी छाँव में लेती हूँ हरदम साँस मैं
तू है तपती धूप में इक पेड़ सायादार माँ

छोड़ कर सब काम आ जाया करो मेरी तरफ़
उम्र भर मुझ को तिरा होता रहे दीदार माँ

सब बलाएँ मेरी अपने सर सदा लेती रही
तू ने अक्सर कर दिया रस्ता मिरा हमवार माँ

तू है मेरी माँ, सहेली भी है, हमदम भी मिरी
तेरा हर इक रूप में करती हूँ मैं सत्कार माँ

याद हैं बचपन के मुझ को वो सुहाने दिन कि जब
मेरा माथा चूम के देती थी मुझ को प्यार माँ

मैं ने माना तुझ को पोतों से नहीं फ़ुर्सत मगर
ख्वाब ही में अपनी इस बेटी को दे दीदार माँ

तुझ को भड़कायें अगर, बहुएँ तिरी मेरे ख़िलाफ़
आ न पाये मेरे तेरे दरमियाँ दीवार माँ

हर तरफ़ फैली हुई है तेरी ममता की महक
तेरे आने से हुआ घर मेरा ख़ुशबूदार माँ

राजपूती ख़ून है तेरे रगो-पै में रवाँ
तू परस्तिश के है क़ाबिल ऐ मिरी ख़ुद्दार माँ

तू ने मुझ बेटी से अक्सर काम बेटों के लिये
तू ने बांधी थी कभी सर पर मिरे दस्तार माँ

आ लगा लूँ बढ़ के मैं तुझ को गले, चूमूँ तुझे
तू मिरी हमदर्द माँ है, तू मिरी ग़मख़ार माँ
</poem>
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