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05:05, 2 अक्टूबर 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=वसीम बरेलवी
|अनुवादक=
|संग्रह=मेरा क्या / वसीम बरेलवी
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
उसे समझने का कोई तो रास्ता निकले
मैं चाहता भी यही था वह बेवफ़ा निकले
किताबे-माज़ी के औराक उलट के देख ज़रा
न जाने कौनसा सफ्हा मुड़ा हुआ निकले
मैं तुझसे मिलता हूँ, तफ़्सील में नहीं आता
मेरी तरफ से तेरे दिल में जाने क्या निकले
जो देखने में बहुत ही क़रीब लगता है
उसी के बारे में सोचो तो फ़ासिला निकले
तमाम शहर की आंखों में सुर्ख़ शोले हैं
'वसीम' घर से अब ऐसे में कोई क्या निकले।
</poem>