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|रचनाकार=जंगवीर स‍िंंह 'राकेश'
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<poem>
वक़्त अपनी तरह से चलता है
ये कहां टालने से टलता है

इक वही शख़्स ख़ुश है दुनिया में
हर कोई बस उसी से जलता है !

कोई बेचैन है मेरे अन्दर !
कोई तो करवटें बदलता है

मुफ़्लिसी जान खाये है मेरी!
वक़्त भी हक़ मेरा निगलता है

चाँद तारे भी हाथ मलते हैं
जब मिरा चाँद छत पे चलता है

मुझको महसूस तो करो यारो
मुझमें भी एक 'जान' पलता है

कैसा दस्तूर है ज़माने का,
आदमी आदमी से जलता है
</poem>
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