6,725 bytes added,
11:41, 3 अक्टूबर 2018 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=जंगवीर सिंंह 'राकेश'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
मैं बोला,
पापा, मुझे कवि बनना है,
सहम गए जैसे उनसे उनका बेटा माँग लिया है
उनके लहू से और भी जैसे, लहू माँग लिया है
शायद! मैं समझा नहीं था, उनकी पीड़ा
दर्द, ख़ामोशी और जिम्मेदारियों का बीड़ा।
वह बोलें,
मेरे दोनों कन्धों पर भार बहुत है,
एक कन्धे का बोझ तो अपनें कन्धों पर धर ले!
बन जाना कवि, किसने रोका है?
किन्तु, पहले कोई सरकारी नौकरी कर ले।
जीवन छन्द है, व्यंग है, रचना और कविता भी है
तृण है, मृदुल है, फूल, निर्झर और सरिता भी है
एक पिता जब हो जाओगे तो जानोगे?
एक पिता की जिम्मेदारी आखिर क्या-क्या है?
ह्रदय अन्त विभोर हो उठा उनकी बातों में,
अन्तः मन से, जो कुछ कहा था पापा ने,
मैं बेटा बनकर ही तो सोच रहा था,
किन्तु सारा सच विवश दिखा उनकी आँखों में
मैं,
फिर से दबाना चाहता हूँ अन्तर्मन में कविता
विवश हूँ मैं फिर भी लिख गया कविता,
आखिर सोचता हूँ मैं ही क्यों जंजाल में हूँ?
एक ओर कवि बनना,
दुसरी ओर पापा की इच्छा पूरी करना।
मेरा दिन-रात जागकर कविताएं लिखना
और इस लेखन का मतलब क्या है ?
मेरे स्वपनों का खण्डन है या विवशता है?
जो विवश है, टूटा है, क्या वही कवि हो सकता है?
अपने ह्रदयी-खेतों में पिता,
सन्तानों की फसल लहलाते देखना चाहता है?
सांसारिक बाग में एक पिता ही तो बागवां है,
वह डरता है, बेटा-बेटी विफल न हो जाए,
उसकी खुशियों का कोई पौधा न मुर्रझाए,
जो बेटा यह बात समझ सकता है, वह,
सरकारी नौकरी तो क्या,
सब कुछ कर सकता है।
मैं आखिर ठान के बैठा हूँ
मैं भी बेटा हूँ सबकुछ कर सकता हूँ
कविताओं में मेरा मन बसा है
और पापा, में जीवन बसा है
उनके बारे में आखिर रोज सोचता हूँ
जो उनके हित में है, वही करता हू
आईने के सामने उनकों यह कहते देखना चाहता हूँ
मेरा बेटा दोनों कन्धों का बोझ सम्भालने लगा है
मेरा बेटा जिम्मेदार बेटा बनने लगा है
परिवार को ध्यान रखने वाला बेटा,
बिना बेटों के ही बाप बन सकता है
जैसे दरिया से दरिया मिलकर,
सागर बन सकता है।
बेटा भूमि भी हो सकता है अम्बर भी हो सकता है,
यदि दर्पण हो सकता है तो पत्थर भी हो सकता है।
जब एक चींटी तिनके पर मंजधार में अटकी हो
तो वह तिनका पिता होता है, चींटी बेटा,
लेकिन पालकी में बिठाये, श्रवण सैर कराता हो,
तो पालकी मे पिता होता है, बोझ उठाता बेटा
मैं जितना बेटे के पक्ष में हूँ, उतना पिता का पक्षधर भी
अगर हूँ तिनका कहीं तो हूँ कही कहीं श्रवण भी
विष का जाप करने वाला जीव हूँ, ईश हूँ, विषधर भी
यह सृष्टि कभी बेटों की कभी पिताओं की प्रशंसक रही है
बेटों और पिता पे ही तो रामायण, गीता, महाभारत रचीं हैं
जैसे कविता, कवि का सौन्दर्य दर्शाती है
वैसे पिता की बेटों में झलक दिख जाती है
जैसे एक प्यासा पानी का लालसी होता है
वैसे हर पिता बेटों का लालसी होता है
अमृत जैसे प्यालों में अनुकंठित हो सकता है
एक पिता पुस्तक-सा कविताओं में संकलित हो सकता है
पिता ह्रदय तल है तो तो संताने धडकन हैं
पिता यदि बागवां है तो संताने मधुवन हैं
पिता – बेटे की,
बेटा – पिता की,
छवि जब हो सकता है
तो जंगवीर सिहँ ‘राकेश’,
कविताओं में लिपटा
कवि, क्यों नही हो सकता है?
</poem>