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12:03, 3 अक्टूबर 2018 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=जंगवीर सिंंह 'राकेश'
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<poem>
हो के यूँ पत्थर जो हम उनके हवाले जाएँगे
यानि क्या अब पत्थरों से दिल निकाले जाएँगे
इश्क़ की आँधी चली तो आग ज़िस्मों में लगी
अब कहाँ सासों के ये तूफ़ाँ संभाले जाएँगे
ज़र्रा - ज़र्रा मैं यूँ कटता हूँ तो बहता हूँ कभी
एक - दिन ये रिश्ते-नाते सब बहा ले जाएँगे
लहरों में अफवाह है सागर अब तबाह हो जाएगा
मैं समझता हूँ सफ़ीने अब निकाले जाएँगे
इस क़दर ये इश्क़ ये चाहत ये लम्हे चुभते हैं
अश्क आँखों के न अब हमसे संभाले जाएँगे
दर्द था, गम था, लहू था इश्क़ की आँखों में तब
प्यार के पंछी न फिर से दिल में पाले जाएँगे।
</poem>