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12:09, 3 अक्टूबर 2018 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=जंगवीर सिंंह 'राकेश'
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<poem>
आज आख़िरी दिन है, आज की रात आख़िरी है
सर्द हिमालय - सी बैरन, मेरी पीड़ा खड़ी है
तुम अपने हृदय-बागानों को खुशरंग सुबह देना प्रिये
तुम मेरी धुमिल इन यादों को इक रोज़ मिटा देना प्रिये
मैं तम का झुट-मुट साया हूँ तुम आने वाली उषा हो
जीवन की ठहरी राहों को इक नया मोड़ देना प्रिये
मैं पढ़ सकता हूँ, तुम्हारी आँखें, ये चेहरा, तुम्हारे भाव,
ठिठके, सहमे इन अधरों पर शाएद कोई बात आख़िरी है
कह दो!
आज आख़िरी दिन है आज की रात आख़िरी है।
</poem>