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यह वही दुनिया थी ! / विनय सौरभ

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खूँटी पर टँगा कुर्ता
फकीर को दे दिया गया !

तो तय था-
पिता चले गए थे
माटी हो चुके थे

लेकिन दुनिया वैसी की वैसी रही !
विस्मय से भर गए हम !

जो रोज शाम चाय पर हमारी बैठक में आते थे, हमारे घर में कहकहों का संसार रचने वाले पिता के मित्र न जाने कहाँ बिला गए !

पिता के कुछ सरकारी पैसे थे, उनकी निकासी के वास्ते उनके दफ्तर में जाना पड़ा हमें और बार-बार जाना पड़ा !

आखिरकार रो दिए हम !
वहाँ हवा भी रुपए माँगती थी काम के एवज में !

यह असली दु​​निया थी
भयावह विवरणों से भरी !
भयाक्रांत कर देने वाले अनुभवों वाली यह वही दुनिया थी, जिसके बारे में पिता अक्सर कहते थे :

असली दुनिया में पैर रखोगे तब जानोगे !
​​​​

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