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<poem>
ठोकरें, जब पत्थरों से खाओगी तुम
चल के मेरे पास ही तब आओगी तुम

सजसँवर लेती हो चलती मेट्रो में भी
खूब इतराती हो, अपने नेत्रों पर भी!
हुस्न है, पूरे शबाबों पर अभी तो,
आशिकों की भीड़ ज़द में है अभी तो

पर, कभी जब बेवफ़ाई पाओगी तुम,
चल के मेरे पास ही तब आओगी तुम

टूट कर धम से बिखर जाते हैं घर
तूफ़ानों से जब कभी टकराते हैं घर
रेत के महलों गुमां किस बात का है
आँधियों का आना तय इस रात का है

रेत-सी ही जब बिखर जाओगी तुम
चल के मेरे पास ही तब आओगी तुम

दोस्तों पर जान फेेंका करते थे हम
हां इसी अन्दाज़ पे तो मरती थी तुम
बज़्म-ए-शब<ref>राताेें की मह‍फिल</ref> जिनपर लुटाती फिर रही हो
खूब यानी ज़र<ref>धन, संपत्ति।</ref> उड़ाती फिर रही हो

आस्तीं में जब सपौलें, पाओगी तुम
चल के मेरे पास ही तब आओगी तुम

तुमने अच्छा ही किया है दूर जाकर
अस्लियत से मुझको यूँ वाकिफ़ कराकर
अस्ल में तुमसे मुहब्बत थी हाँ मुझको
डूबने की तुझमें ही चाहत थी मुझको

जब तुम्हारी उम्र ये ढलने लगेगी
उन दिनों तुम मेरी ग़ज़लें ही पढ़ोगी

तब मुझे खोकर बहुत पछताओगी तुम
चल के मेरे पास ही तब आओगी तुम!!
</poem>
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