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अल्फ़ाज़ का चुनाव और आहंग उसे कुछ विरासत में मिला है, कुछ उसकी अपनी लाक है. अपनी उम्र से बड़ी बात करता है आलोक-
'''ये जिस्म क्या है कोई पैरहन उधार का है,यहीं संभाल के पहनना यहीं उतार चले.'''
ग़ज़ल के अंदाज़ में ये शेर कहना वाक़ई बड़े सिफ़त का बात है, इसमें एक अंदाज़ भी है और नग़्मगी भी-
'''साला पांसा हरदम उल्टा पड़ता है,आख़िर कितना चलूं संभल कर बम भोले.'''
'''घर से दूर न भेज मुझे रोटी लाने,सात गगन हैं सात समंदर बम भोले.'''
सिर्फ़ ग़ज़ल में ही नहीं, आलोक ने शायरी की दूसरी फ़ॉर्म्स में भी तब्अ-आज़माई की है. जैसे ग़ज़ल में एक ख़ास मिज़ाज की ज़रूरत होती है, उसी तरह दोहे में एक ख़ास तबीयत का होना बहुत ज़रूरी है-
'''आंखों में लग जाएं तो, नाहक़ निकले ख़ून,बेहतर है छोटे रखें, रिश्तों के नाखून.'''
ये तआरुफ़ लिखते हुए मैं वाक़ई किसी तरह की सीनियरिटी से काम नहीं ले रहा हूं. मैं सच कहता हूं कि आलोक ने कई जगह हैरान किया है मुझे. उसकी सीधी-सादी बातें सुन कर मुझे नहीं लगता था कि इस ठहरी हुई सतह के नीचे इतनी गहरी हलचल है. उसकी नज़्में इस बात की गवाह हैं-
'''मुहब्बतों की दुकां नहीं है
वतन नहीं है, मकां नहीं है
क़दम का मीलों निशां नहीं है
मगर बता ये कहां नहीं है'''.
आलोक एक रौशन उफ़क पर खड़ा है, नए उफ़क़ खोलने के लिए, आमीन!
'''-गुलज़ार'''
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