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|रचनाकार=जंगवीर स‍िंंह 'राकेश'
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<poem>
तुम्हारे हुस्न के चर्चे बहोत हैं
हमारे हिज्र के किस्से बहोत हैं

अमांं जाओ, तुम्हें दौलत मुबारक!
हमारे ख़्वाब भी महँगे बहोत हैं

जहाँ पर चाहें हम बुनियाद रख दें
हम अपनी ज़िद्द के पक्के बहोत हैं

तुम्हारे हाथ में मंज़िल अगर है
मेरे भी पांव में रस्ते बहोत हैं

र‍िहा कर दो न ये पंछी क़फ़स से
सुना है आप ताे अच्‍छे बहोत हैं
</poem>
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