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[[Category:ग़ज़ल]]
आँकड़ों से पीटना सरकार को महंगा पड़ा।<BR><BR>
आँकड़ों को पीट बैठा आँकड़ों का आँकड़ा।<BR><BR>
एक में बासी हुआ जल, एक में ताज़ा रहा<BR>
एक चांदी की सुराही, एक मिट्टी का घड़ा।<BR><BR>
आईना बाज़ार का कैसे नहीं अच्छा लगे<BR>
अक्स देता है बिकाऊ और असली से बड़ा।<BR><BR>
धूप देती ही नहीं है जागने का हौसला<BR>
जागने की सीख लेकर सूर्य खिड़की पर खड़ा।<BR><BR>
ज़ख्म बदला कोख में फिर कोख से निकली ग़ज़ल<BR>
फिर समय के पाँव में इतिहास का काँटा गड़ा।<BR><BR>
यह सडंधों का शहर है राज नकटों का यहाँ <BR>
कहें किससे नाकवाले क्या सड़ा कितना सड़ा।<BR><BR>
तुम उठो, तुम भी उठो इन आँधियों में दम भरो<BR>
साफ़ होगा यूँ नहीं उन क़ातिलों का सूपड़ा।<BR><BR>