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{{KKRachna
|रचनाकार=ज्ञान प्रकाश पाण्डेय
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<poem>
मुस्कुराकर बा-अदब कहता है दर्पण प्यार से,
आप का चेह्रा अलग है आप के किरदार से।

होरी हल्कू रामधन अब सच बतायेंगे तुम्हें,
सच बज़ाहिर कब हुआ है टीभी या अख़बार से।

अच्छे दिन की चासनी अब कब तलक चाटें कहो,
सिउआ की विधवा यही है पूछती सरकार से।

धर्म शिक्षा-गृह चिकित्सा दोस्ती इंसानियत,
क्या नहीं इस दौर में वाबस्ता है व्यापार से।

इस बदलते वक्त में मग़रिब का है ये तोहफ़ा,
दौरे-हाज़िर में तसव्वुफ़ जुड़ गया व्यभिचार से।

ये सियासी लोग भी अब क्या बताऊँ दोस्तों,
पीठ में खंज़र घुसा देते हैं कितने प्यार से।

नून आटा दाल चावल उस पे शिक्षा औ' दवा,
कड़कडाने लग गई हैं हड्डियाँ इस भार से।

क्या किसी बिल से मिला है क्या है मनरेगा से लाभ,
आओ चलकर पूछते हैं जोधा के परिवार से।

उस तरफ के लोग भी क्या हैं बिछड़कर ग़मज़दा,
बस यही इक प्रश्न करना है मुझे दीवार से।

क्या भला मिलता है घुट-घुट कर फ़ना होने मे 'ज्ञान',
इश्क की तासीर मर जाती क्यों इज़हार से।
</poem>
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