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|रचनाकार=रामेश्वरीदेवी मिश्र
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
उसमें भरी मोहनी शक्ति है क्या, जिसको लख हो सुख पाते कहो?
उसके उस ज्वालामुखी तन को किस लालच से लिपटाते कहो?
किस भ्रांति की जादूगरी में फँसे तुम कौनसा हो सुख पाते कहो?
पड़ के किस चाह की आग में यों अपने तुम प्राण गँवाते कहो?
उस निष्ठुर दीपक देवता से वरदान की आशा लगाना बुरा।
करते हो उपासना, खूब करो, चौगुना चाव चढ़ाना बुरा।
उससे न मिलेगा तुम्हें कुछ भी भ्रम में मन को उलझाना बुरा।
सुख साथ है जीवन के जग में जल के कहीं प्राण गँवाना बुरा॥
तुमको कर भस्म समूल पतंग, वो दीपक तो जलता ही रहा।
परवाह न प्रीति की की उसने वह नित्य तुम्हें खलता ही रहा।
अपनी विष से भरी सुन्दरता को दिखा तुमको छलता ही रहा।
तुमने किया प्रेम औ प्राण दिये उसका क्रम तो चलता ही रहा॥
</poem>
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उसमें भरी मोहनी शक्ति है क्या, जिसको लख हो सुख पाते कहो?
उसके उस ज्वालामुखी तन को किस लालच से लिपटाते कहो?
किस भ्रांति की जादूगरी में फँसे तुम कौनसा हो सुख पाते कहो?
पड़ के किस चाह की आग में यों अपने तुम प्राण गँवाते कहो?
उस निष्ठुर दीपक देवता से वरदान की आशा लगाना बुरा।
करते हो उपासना, खूब करो, चौगुना चाव चढ़ाना बुरा।
उससे न मिलेगा तुम्हें कुछ भी भ्रम में मन को उलझाना बुरा।
सुख साथ है जीवन के जग में जल के कहीं प्राण गँवाना बुरा॥
तुमको कर भस्म समूल पतंग, वो दीपक तो जलता ही रहा।
परवाह न प्रीति की की उसने वह नित्य तुम्हें खलता ही रहा।
अपनी विष से भरी सुन्दरता को दिखा तुमको छलता ही रहा।
तुमने किया प्रेम औ प्राण दिये उसका क्रम तो चलता ही रहा॥
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