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पतझड़ / पुरुषार्थवती देवी

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<poem>

इन पंखों में तड़प उठा है यह मेरा मृदुहास
खिलकर भी इसमें पाया है भीना-भीना हास॥
बाल-सुलभ-चंचलता खेली पंखड़ियों पर प्यार।
कितने ही वसन्त मुर्झाये यह विधु-वदन निहार॥

नवयौवन का मद मतवाला फिर-फिर बजते तार।
इस तन पर निसार होता था अलि का जीवन-सार॥
वह परिहास हास, जिसमें था-पाया पूर्ण विकास।
समझ न सकती थी मैं इसमें भी हे क्षीण विनास॥

ऊँची डाली पर देखा था वह विस्तृत संसार।
अब क्षिति के उजड़े दिल में है खोजा इसका क्षार॥
खुले हुए थे जग भर क हिय मैं थी उनका हार।
किन्तु शेष है अब तो केवल पौरुष, पाद-प्रहार॥
आह! याद करके क्या होगा अपना गत संगीत।
भूल जायँ विस्मृतियों में ही मेरे राग-पुनीत॥
सुनी अनसुनी करदो, मेरी नीरस-करुण-पुकार।
जाती हूँ वेदना भरे मन से अनन्त के द्वार॥

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