2,042 bytes added,
20:13, 15 जनवरी 2019 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
सम्हल जाओ मूर्तिभंजक!
तोड़ जिसको थीं न पायी
जेल की वे यातनाएँ,
जिन्दगी की रौनकेंरंगीनियाँ,
अगणित प्रलोभन
तुम उसे क्या तोड़ पाओगे
हाँ, केवल जोड़ जाओगे
उसे फिर लोकमन से।
सम्हल जाओ,
मोम की यह मूर्ति तो लगती नहीं है
चोट खाकर हो न हो यह आग उगले
औ' तुम्हारे दोस्त, संरक्षक, नियामक
जल मरें तो क्या गजब है!
भ्रांतिभक्तो! अब न कड़को
विगत की समृद्धि से इतना न भड़को
छोड़कर करतूत काली जीवनेच्छा को जगाओ
जो गिरे उनको उठाओ, भ्रम भगाओ,तम मिटाओ
राष्ट्रमाता के लिए सोल्लास निज तनमन लुटाओ
विश्व के कल्याण खातिर जहर पीओ, मुस्कराओ।
पूर्वजों से द्रोह, ईर्ष्या, घृणाकर
तुम टूट जाओगे कि पीछे छूट जाओगे
समय के साथ कुछ चलना भी सीखो
जलो पर गलना भी सीखो।
हम समय के साथ चलते, चल रहे, चलते रहेंगे
तुम मरोगे, तुम मिटोगे, हम रहेंगे, हम रहेंगे।
</poem>