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{{KKRachna
|रचनाकार=कपिल भारद्वाज
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|संग्रह=सन्दीप कौशिक
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<poem>
मैं एक अधूरा सन्त्रास हूं,
जैसे एक आधी बुझी बीड़ी,
रखी हो मेज के किनारे
मैंने हज़ारों कुंठित उत्सव मनाऐ हैं,
जिन्होंने चाट लिया है, घुन की तरह,
मेरे भीतर बैठे देवता को !

हर अमावस्या की रात,
किसी मंदिर के पिछवाड़े बैठकर,
घटिया दारू चटखारे लेकर पी है मैंने!

मैं जला दिए गए उपन्यास का वो नायक हूं,
जो पत्थरो में अपनी प्रेमिका के चुम्बन तलाशता है!

सच कहूं,
फफोले फोड़ने में जो मजा है,
किसी स्त्री नाभि की चिकोटियाँ काटने में भी नहीं !
</poem>
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