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|रचनाकार=कपिल भारद्वाज
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|संग्रह=सन्दीप कौशिक
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<poem>
पैन की स्याही से निकली,
चटक आवाज से ही,
झक सफेद पड़ने लगते हैं जिनके चेहरे,
और अंधेरे के सन्नाटे को चीरती,
पेन चलने की चर्र-चर्र की आवाज से निकलती रोशनी,
जिनकी आंखों में पनीली किरचों की तरह,
लगती है गड़ने,
तो हैरान परेशान वो लोग,
तान देते हैं पिस्तौल कलम के माथे पर ।

पर कलम चूंकि शाश्वत है, सत्य है,
हमेशा से पड़ा है जहर और गोलियों से वास्ता ।

बर्फ सी ठंडी हथेलियों के बीच,
करीने से सजाकर रखी गयी हजारों पिस्तौल,
न तो चटकती स्याही को ही खत्म कर सकती हैं,
और न ही चर्र-चर्र की आवाज से निकलती रोशनी को ।
</poem>
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