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{{KKRachna
|रचनाकार=कपिल भारद्वाज
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|संग्रह=सन्दीप कौशिक
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<poem>
कब से कोयल रो रही है, इतनी बेबस हूक !

सम्बन्धों को रखा ताक पर, बना दिया बाजार,
भावनाओं में नागफनी से, रिश्ते हैं लाचार,
हर घर मे दो आंगन हुऐ, छत गयी है चूक,

चूल्हा पड़ा सिसक रहा है, खा रहा हिचकोले,
दाल भात को तरसे बच्चे, कैसे जयहिंद बोलें,
बड़ों-बड़ों के शीश झुकादे, शक्तिशाली भूख ।

धर्म की बगिया में बो दिऐ, बस कांटे ही कांटे,
मानवता का ह्रास हुआ, पड़े गाल पर चांटे,
कहीं मंदिर कहीं मस्जिद में, बिलो रहे हैं थूक ।

राजनीति की नैया भ्रमित, लहरों में है भटकी,
जनता अंधे कुएं में, ज्यों चमगादड़ सी लटकी,
कोई चिल्लाए गला फाड़ के, कोई बिल्कुल ही मूक ।
</poem>
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