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{{KKRachna
|रचनाकार=कपिल भारद्वाज
|अनुवादक=
|संग्रह=सन्दीप कौशिक
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<poem>
आज नीरवता चारों ओर फैली है,
जनवरी की उस धुंध की तरह,
जो गहराती रात में,
और ज्यादा गहरी होती जाती है !

उलझी हुई भाषा की बिखरी किरचों को,
समटने का यह आखिरी प्रयास होगा,
सहज होना ही मुझे बैचेन करता है,
अपनी जद में ले लेता है पीलिया,
मेरी जीर्ण-शीर्ण देह को
यदि तीन रातें निकल जाएं बिना बैचेन हुए !

कभी-कभी लगता है कि बैचेनी,
वो बिछुड़ी हुई प्रेमिका है,
जो सारी रात पान के पत्तों को चबाती रहती थी,
और सुबह पीक छिड़क देती थी,
मेरे जरखेज होठों पर !

क्या मालूम यह बैचेनी है,
या पान की वो पीक,
जिसकी बिछुड़न न शरीर सह पाता है,
और न ही मन !
</poem>
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