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{{KKRachna
|रचनाकार=कपिल भारद्वाज
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|संग्रह=सन्दीप कौशिक
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<poem>
आठ साल की बच्ची की योनि से रिसता खून,
न तो भय पैदा कर रहा था,
किसी देवता के कुपित होने का,
न उन्हें लज्जा आई खुद के मानव होने पर,
न पश्चाताप के आंसू थे उनकी आँखों में,
उनकी लपलपाती जीभ,
जानवरो के सब प्रतीकों को पछाड़ चुकी थी,
होठों में घुटती गिग्घी को,
दबा दिया गया तालू में ही,
सभ्यता के इस नँगे आवरण को,
जिसमे से आती है बूचड़खाने की तीखी सड़ांध,
चीथ देना होगा समय रहते,
नश्तर से जख्म सहलाने की सजा,
आखिर कब तक भुगतेगी मानवता,
उड़ा देने होंगे उनके लिंग, जंग लगी दरातीं से,
ताकि ये खूबसूरत धरती,
गंदे वीर्य का बोझ ढोने से बच सके,
और दरातीं का जंगपना भी जाता रहे ।
</poem>
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