Changes

{{KKCatNavgeet}}
<poem>
नीलकंठ को अर्पित करते
बीत गया बचपन
तब जाना
है बड़ा विषैला
श्री कनेर का मन
अंग-अंग होता जहरीला
जड़ से पत्तों तक
केवल कोयल, बुलबुल, मैना
के ये हितचिंतक
 
जो मीठा बोलें
ये बख़्शें उनका ही जीवन
 
आस पास जब सभी दुखी हैं
सूरज के वारों से
विषधर जी विष चूस रहे हैं
लू के अंगारों से
 
छाती फटती है खेतों की
इन पर है सावन
 
अगर न चढ़ते देवों पर तो
नागफनी से ये भी
तड़ीपार होते समाज से
बनते मरुथल सेवी
 
धर्म ओढ़कर बने हुए हैं
सदियों से पावन
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,395
edits