भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
चंचल मृग सा
घर आँगन में
दौड़ रहा हरदम
उत्सव का मौसम
घनुष हाथ में लेकर
पल में राम सरीखा लगता
अगले ही पल
लिए बाँसुरी बालकृष्ण सा दिखता
तन के रावण, कंस, पूतना
निकला सबका दम
मन मंदिर में गूँज रही अब
राधा की छम-छम
दीपमालिका
उसकी हँसी अमावस में लगती है
थके हुए जीवन को
नित नव संजीवन देती है
हर दिन मेरा हुआ दशहरा
खत्म हो गए ग़म
सब रातें हो गईं दिवाली
भागे सारे तम
अखिल सृष्टि में
बालक-छवि से ज्यादा सुंदर क्या है
बच्चों में बसने को शायद
प्रभु ने विश्व रचा है
करते इस मोहन छवि पर
सर्वस्व निछावर हम
नयनों में हो यह छवि तेरी
निकले जब भी दम
</poem>