भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
तन में मन में
जब तक ईंधन
सूरज रे जलते रहना
जो डर को बेचा करते वो
जग का अंत निकट है कहते
जीवन रेख अमिट धरती की
हिमयुग आए गए बहुत से
आग अमर लेकर सीने में
लगातार चलते रहना
तेरा हर इक बूँद पसीना
छू धरती अंकुर बनता है
हो जाती है धरा सुहागिन
तेरा ख़ून जहाँ गिरता है
 
बन सपना बेहतर भविष्य का
कण-कण में पलते रहना
छँट जाएगा दुख का कुहरा
ठंड ग़रीबी की जाएगी
ये लंबी काली रैना भी
छोटी ही होती जाएगी
 
बस अपनी किरणों से
बर्फ़ सियासत की दलते रहना
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits