भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
हमसे कुछ दूर ही रहना
ऐ पगली
पास न आना
तूफ़ान हमारे आँगन में
मृदु झोंके सा लहराता है
सूरज हो नन्हें बालक सा
कुछ मचल-मचल इठलाता है
सागर को गागर में भरकर
हम अपने घर में रखते हैं
ऐसे जाने कितने त्रिभुवन
निशि-दिवस बनाया करते हैं
मतवाली हो जाओगे
थोड़ा भी
यदि हमको जाना
हम सागर को मरूथल के
वक्षस्थल में खोजा करते हैं
रवि के भीतर होगा हिमनिधि
अक्सर हम सोचा करते हैं
हमने पाई है चिता भस्म में
नवजीवन की चिंगारी
हैं देख चुके हम मध्यरात्रि में
सूरज को कितनी बारी
हम कवि हैं दुनिया
पागलपन है
हमसे प्रीत लगाना
</poem>