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{{KKRachna
|रचनाकार=लाल्टू
|अनुवादक=
|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
2010 में आदमी लड़ रहा है 1850 की लड़ाई। एक दिन में आधा दिन माँग रहा
है अपने लिए।
आधी रात को मकान की छत बना रहा है आदमी। जिसे मकान में रहना है, वह
2010 में आदमी को देखता है जैसे 1890 को आने में अभी और कई साल
लगेंगे।
आदमी सोचता है कि वह उस ग्रह का वासी नहीं है। अपने ग्रह में उसे दो-तिहाई
दिन अपने लिए मिल सकता है। अपने ग्रह में बच्चों के साथ खेलने के अलावा
वह सपने भी देख सकता है। यहाँ इस ग्रह में वह इन्तज़ार में है कि 2020 या
2030 तक वह 1890 से आगे चल पाएगा। इस तरह वह फुकुयामा को बतलाता
है कि इतिहास और खगोल, सब गड्डमड्ड हैं।
छत बनाते हुए उसे देखते लगता है कि वह रात के अँधेरे में नहीं लड़ सकता।
सभी फुकुयामा इस ख़याल में पूरी उन्नीसवीं सदी बिता देते हैं।
वह वक़्त है कि चलता रहेगा। ग्रह चलेंगे, नक्षत्र चलेंगे।
आदमी है कि लड़ता रहेगा।
</poem>
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|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
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2010 में आदमी लड़ रहा है 1850 की लड़ाई। एक दिन में आधा दिन माँग रहा
है अपने लिए।
आधी रात को मकान की छत बना रहा है आदमी। जिसे मकान में रहना है, वह
2010 में आदमी को देखता है जैसे 1890 को आने में अभी और कई साल
लगेंगे।
आदमी सोचता है कि वह उस ग्रह का वासी नहीं है। अपने ग्रह में उसे दो-तिहाई
दिन अपने लिए मिल सकता है। अपने ग्रह में बच्चों के साथ खेलने के अलावा
वह सपने भी देख सकता है। यहाँ इस ग्रह में वह इन्तज़ार में है कि 2020 या
2030 तक वह 1890 से आगे चल पाएगा। इस तरह वह फुकुयामा को बतलाता
है कि इतिहास और खगोल, सब गड्डमड्ड हैं।
छत बनाते हुए उसे देखते लगता है कि वह रात के अँधेरे में नहीं लड़ सकता।
सभी फुकुयामा इस ख़याल में पूरी उन्नीसवीं सदी बिता देते हैं।
वह वक़्त है कि चलता रहेगा। ग्रह चलेंगे, नक्षत्र चलेंगे।
आदमी है कि लड़ता रहेगा।
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