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19:33, 21 जनवरी 2019 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=लाल्टू
|अनुवादक=
|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
}}
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<poem>
तीसरे चौथे पहर टिप-टिप सुनता हूँ
झिर-झिर आती है नम हवा
मेढक झींगुर के झीं झीं टर टर के साथ
चादर में काँपता हुआ ध्वनियों को समेटता हूँ
सिकुड़ते बदन के साथ बदलते सपनों के रंग
बैंगनी-सा होता है सपने में अतीत
सुनता हूँ शंख
उलूकध्वनि घबराहट माँओं की
यह सपना नहीं जब रात भर पानी छतों से चूता
बाप जगा खपरैल या पॉलीथीन की छत सँभालता
माँ अपने बदन से ढकती बच्चे को
घुप्प काला है पहर गहराता
यह सोचकर फिर पलकें मूँदता हूँ
कि बसन्ती उम्मीद भी है हल्की-सी कि
देर से जाएँगे लोग काम पर सुबह
हालाँकि बहुत दिक्क़त होगी औरत को
मर्द के लिए चाय बनाने में सुबह-सुबह।
</poem>