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|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
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<poem>
मैं जब नंंगा खड़ा होता हूँ
उस वक़्त मैं सबसे खू़बसूरत होता हूँ

मेरी माँ की छातियाँ बहुत ख़ूबसूरत हैं
मुझे हलका-सा याद है
मेरे बाप को सबसे ख़ूबसूरत देखा था मैंने
जब देखा उसे वस्त्रहीन मैंने

सड़क पर घूमते जानवरों पक्षियों को नंगा ही देखा है
कोट पहने कुत्ते मुझे कोटधारी अफ़सरों जैसे लगते हैं
आषाढ़ में यौन उन्मत्त जानवर क्या कर लेते
जब दहाड़ते बादल और उन पर लदे होते कपड़े

ऐ चित्रकारो! मुझे मत दो उस ईश्वर के चित्र
जो होता शर्मसार कपड़े उतर जाने से

मैं ढालूँगा ईश्वर को अपने ही साँचे में
जो फुदक सके पक्षियों की तरह
मेरी तरह प्यार कर सके
रो सके प्रेम के उल्लास में
खड़ा हो सके मेरे साथ
उलंग हुसैन के चित्रों में।

</poem>
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