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|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
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<poem>
जो बहुत दूर से चलकर
मुझ तक आया है
उसे मैं क्या दूँ
मेरे घर के पिछवाड़े में
हरे हैं पेड़ इन दिनों
उदार मन दे देता हूँ
बादलों ने चाँद को
इस डर से छिपा रखा है
कहीं बाँट न दूँ
तुम्हारा प्यार मुझसे यूँ बँधा है
कि चाहकर भी नहीं
बाँट सकता इसलिए देता हूँ
महज़ एहसास इस बोझ का
उसने लौट जाना है मेरे बोझ को
सड़क किनारे किसी पत्थर पर
फेंक कर हालाँकि मैं बार बार उसे पुकारता
अपने एहसासों की याद में

जो बहुत दूर से चलकर मुझ तक आया है
वह मुझे नहीं मेरी दुनिया को चाहता है
चुनता है पारखी वह मेरे अनुभवों के झुड से
अपने काम की गोटियाँ।

</poem>
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