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|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
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<poem>
गो कि वह और दिनों से अलहदा नहीं
सुबह चाय की जद्दोजेहद
सोमवार का दुःख जो बेटी की आँखों में
कार्नफ्लेक्स कि ब्रेड के बीच उसके बटनों की सरहद।

नौ बजे मुझे पढ़ाना है
यानी आठ बजे पढ़ना है
सेब की फाड़ियों जैसे अणु परमाणुओं
के अन्दर का सागर गढ़ना है।

दस बजे चाय
बाद लगातार एक दिन भर का जीवन
जिसमें शामिल घर दफ़्तर के टिकटिक बीतते
वही वही वही-वही रोज़ के हर क्षण।
सूनी आँखों से की-बोर्ड के बटन देखना
समझ न पाना किस अक्षर पर उँगली रखूँ
हर पल हर साँस हर पलक झपकते उसी को सोचते रहना
हर आवाज़ में उसकी आहट ढूँढ़ना

इस सदी का वह उस सदी का वह
आधी रात बाद का वह
ठण्ड की सुबह का वह। उसका होना
उसके होने में मेरा होना
आदत है।
उसी के लिए इस ओर आया छोड़ मझधार
यहाँ नीले हरे हर रंग में अवसाद बसता है
वह कब है कब नहीं है
इसी हिसाब में बहते
सागर पार कर जाना
आदत है।

</poem>
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