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|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
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<poem>
विकराल चट्टानें-सी हैं
सहस्र वर्षों पहले आदमी ले आया समुद्र और ज़मीन पर फिसलाते
उस वक़्त आदमी के पास
लिखने को कविता नहीं थी
नहीं थे रंग जो ढल सकें काग़ज़ पर
काग़ज़ भी नहीं था
गुफाओं पर तस्वीरें बनाता
रोने लगा था आदमी
कुछ और कुछ और की चीख गूँजती निरन्तर हृदय में
दो चार नहीं दर्जनों ज़िन्दगियाँ गुज़र गईं
आदमी पर आदमी गिर रहे थे
जब चढ़ रहे थे पत्थरों पर पत्थर

सूरज और दीगर नक्षत्र
पत्थरों के बीच से गुज़रते थे
और ले आते थे मंगल मुहूर्त
खेतीबाड़ी, ब्याह आदि के
आदमी को तृप्ति थी कि कुछ और
बन चला इसी बीच
इतना नादान
जानता ही नहीं
कि तृप्ति कभी नहीं होती
चाहता कुछ और की
रह जाती निरन्तर जीने की वज़ह का शाप बनकर।

</poem>
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