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06:20, 22 जनवरी 2019 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=लाल्टू
|अनुवादक=
|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
}}
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<poem>
जो हूँ वह हूँ
असावधान, नासमझ भी कभी
पर मुस्कराता हूँ तो मुस्कान ही होती है होंठों पर
राह चलते किसी पेड़ को छूता हूँ
तो कुछ और नहीं होता मन में छुअन के अलावा
सुबह-सुबह क्या दरकार कि
सोच रहा हूँ ख़ुद पर
सवाल है तो सवाल ही है
अमूर्त नहीं हूँ पेचीदा बिल्कुल नहीं
डरपोक हूँ ज़रा
यही जानकर हुँकार भरता हूँ यदाकदा
और फिर गरजने की वजहें भी तो बेशुमार चतुर्दिक्
सबसे कठिन समझाना कि
रंग भरे हैं हर अंग में मेरे
बाँटता रहता हूँ यूँ ही
अब मान लो कि कुछ और समय
यह प्राण भी लेगा थोड़ी जगह तुम्हारी धरती पर
कैसा नासमझ हूँ वाक़ई
तुम्हारी धरती को ज़बरन अपनी कहता हूँ।
</poem>