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|रचनाकार=लाल्टू
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|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
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<poem>
गंगा की नहर में जो घर े पास ही थी आता था ज्वार
जहाँ तक याद है फरक्का के बाँध से खुलता था पानी
बाद में जब तक जाना कि कई इलाक़ों में बाँध को कहते हैं बंध
बाढ़ का विज्ञान भी जान लिया था
और न चाहना भी पनप चुका था बाढ़ के बारे में न लिखने का

जंग के बारे में सोचता हूँ तो याद आता है इकहत्तर का ब्लैक आउट
गंगा पर नौकाएँ खड़ी होती थीं शाम को
ऐसी एक शाम नौकाओं पर छलाँग लगाते पहुँच गया था बीच गंगा
और वहाँ बैठ कर देखा था सूर्यास्त और जाने कैसे रंग जब आगे पीछे शहर था
डूबा अँधेरे में जो आज तक नहीं मिटा है
बाद के इतने सालों में ढूँढ़ता रहा हूँ वे रंग धरती के हर छोर पर जहाँ भी पानी
कहलाता है समन्दर
उस दिन गंगा की मझधार में लटकाए पैर किशोर ख़याल थे मन में
जिनमें थी एक प्रेमिका जिसको लाना चाहता था ठीक वहीं
समन्दर-समन्दर ढूँढ़ रहा हूँ उसे आज तक जब गंगा अब वह गंगा नहीं रही और न
है वह मझधार कहीं

नहर का ज्वार देखते थे पुल की रेलिंग से जब हमसे ज़्यादा ग़रीब बच्चे जिनके माँ
बाप गए होते थे कहीं काम पर
लगाते थे पुल से छलाँग और हम आँखें फाड़ देखते थे कि कैसे हिम्मत इतनी उनमें
अब बाढ़ के बारे में जंग के बारे में कैसे लिखें हालाँकि हर सुबह हर शम ये हैं
चारों ओर कैसे समझाएँ कि याद दिलाते हैं हमें ये जिनको हम खो चुके हमेशा के
लिए।

</poem>
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